भगवान शिव के 21 अवतार

भगवान शिव के अवतार

भगवान शिव के 21 अवतार

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संक्षिप्त परिचय

भगवान शिव के 21 अवतारों (महाकाल अवतार) का सम्पूर्ण विवरण इस लेख में आपको देखने को मिलेगा जिसमें भगवान शिव के 12 नाम का भी उल्लेख देखने को मिलेगा भगवान शिव के कितने अवतार है? यानि “भगवान शिव के अवतारों के नाम” और हर अवतार के बारे में विस्तार से बताया गया है इन अवतारों को धारण करने के पीछे का क्या कारण है? और यह क्या कहानी है? क्योंकि हर कहानी एक दुसरे कहानी से जुडी हुई होती है उदाहरण के लिए “रामायण” “महाभारत” या हमारे अन्य धार्मिक ग्रन्थ इस बात की पुष्टि करते हैं की इनका पूर्व से जुड़ाव रहा है|

जैसा की हम जानते हैं की शिव ही महादेव हैं अर्थात् वह सब देवों के देव यानि सबके स्वामी है उनसे ऊपर कोई नहीं है यह बात हमारे वेद-पुराण भी सिद्ध करते है|    

तो यहाँ हम भगवान शिव के अवतार कितने हैं (महाकाल का अवतार) यह जानेंगे, रूद्र और शिव में अंतर, एकादश रुद्रा के नाम और भगवान शिव के नाम (रूद्र के नाम) भी जानेंगे|

एक बात और जो सबसे ज्यादा चर्चा में रहता है वह है भगवान शिव के पिता का नाम, भगवान शिव का जन्म आदि इसको जानने के लिए click करें|

रामायण के अनुसार हनुमानजी कलियुग के देवता हैं और यह पूरे धरती के विनाश तक इसी पृथ्वी पर रहने वाले है इसलिए हनुमान जी के बारे में जानना बहुत जरुरी है इसके अंतर्गत हनुमान जी का रूद्र अवतार, हनुमान जी के कितने अवतार हैं यह सब जानेंगे|

यानि “भगवान शिव की महिमा का वर्णन और उनका गुणगान विस्तृत रूप से किया गया है|

Shiv shankar
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विस्तार से समझें

1 – शरभ अवतार – नृसिंह रूप धारण कर हिरण्यकशिपु का वध करने पर भी जब विष्णु जी का क्रोध शांत न हुआ तो देवताओं के अनुरोध पर प्रह्लाद ने नृसिंह भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति करके उनके क्रोध को शांत करने की पूरी चेष्टा की परन्तु उन्हें सफलता न मिली| उनकी क्रोधाग्नि की ऊष्मा से जलते हुए और चिंतित देवता भगवान शंकर की शरण में आये| शंकर जी ने नृसिंह की ज्वाला शांत करने का दायित्व लेते हुए देवताओं को आश्वस्त किया|

शिवजी ने प्रलयंकर भैरव रुपी महाबली वीरभद्र को शांति वेश धारण कर नरसिंह के पास जाकर उसे समझाने का अनुरोध किया| वीरभद्र ने जाकर नृसिंह जी से कहा की आदि देव भगवान के निर्देश पर जिस उद्देश्य से अपने यह रूप धारण किया वह कार्य संपन्न हो गया है, अतः अब आप भीषणता त्याग दीजिये|

नृसिंह ने यह सुनकर वीरभद्र के वचनों की अवज्ञा की और अपने को ही सभी शक्तियों का प्रवर्तक तथा निवर्तक बतलाया| वीरभद्र के बहुत प्रबोधित करने पर नृसिंह रूपधारी विष्णु ने अपना दुराग्रह न छोड़ा| इस पर शिवजी का कठिन तेज प्रकट हुआ और शरभ रूप धारण कर उन्होंने नृसिंह को अपनी भुजाओं में बांधकर इस प्रकार जकड़ लिया की वह अत्यंत व्याकुल हो उठा|

शरभ नृसिंह को उठाकर कैलाश पर ले लाया वृषभ के नीचे लाकर डाल दिया| वीरभद्र ने नृसिंह के सम्पूर्ण अवयवों को अपने में मिला लिया| अपना दुख दूर होने पर देवताओं ने कृतज्ञतावश भगवान शंकर की स्तुति-वंदना की| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह पहला अवतार था|

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2 – गृहपति अवतार – नर्मदा नदी के तट पर स्थित नर्मपुर नामक रमणीय नगर में शिवभक्त विश्वानर मुनि रहते थे| अपनी पतिव्रता स्त्री की सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने पत्नी को वर मांगने को कहा तो उस देवी ने महादेव को ही पुत्र रूप में मांग लिया| विश्वानर मुनि ने पत्नी की इच्छापूर्ति के लिए काशी में आकर वीरेश्वर लिंग का सविधि पूजा की, जिससे प्रसन्न होकर सुन्दर बालक के रूप में शिवजी ने मुनी को दर्शन दिया और बालक के रूप में उसके घर उत्पन्न होने की उसकी प्रार्थना स्वीकार कर की| मुनि प्रसन्न चित्त घर लौट आए|

यथा समय उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उपयुक्त समय आने पर उसने पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका गृहपति नाम रखा गया| उसके दिव्य तेज की त्रिलोकी में प्रसिद्ध हो गई नारद जी ने आकर उस दिव्य बालक के उज्जवल भविष्य की घोषणा करते हुए द्वादस वर्ष की आयु में उसको बिजली और अग्नि की भविष्यवाणी की, जिसे सुनकर गृहपति के माता-पिता तो चिंतित हो गए परन्तु बालक ने शिवजी की महिमा का वर्णन करते हुए उन्हें आश्वासन प्रदान किया|

गृहपति काशी में विशेश्वर लिंग का पूजन करने लगा| उसके तप से प्रसन्न हो इंद्र ने उसे दर्शन देकर वर मांगने को कहा, परन्तु बालक ने शिवजी के सिवाय किसी अन्य से कुछ मांगने से इंकार कर दिया इस पर क्रुद्ध इन्द्र ने वज्र से प्रहार किया जिससे बालक मूर्छित हो गया|

शिवजी ने अपने स्पर्श द्वारा उसे सचेत करके उसे बताया की उन्होंने उसको परीक्षा लेने के लिए ही इन्द्र को भेजा था, अब उसे चिंता, भय, आशंका नहीं करनी चाहिए| शिवजी उसे अजर अमर कर दिशाओं का ईश्वर बना दिया| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह दूसरा अवतार माना जाता है|

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3 – नीलकंठ और यक्षेश्वर अवतार – यह अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था| एक समय जब देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उससे निकले विष से घबराकर विष्णु आदि शिवजी की सेवा में उपस्थित हुए और भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान शंकर ने विषपान कर देवताओं का दुख दैत्य दूर किया| विषपान करने से शिवजी को और तो कोई हानि न पहुंची, केवल उनका कंठ नीला पड़ गया इसी से वे नीलकंठ महादेव कहलाये|

पुनः समुद्र-मंथन करने से अनेक रत्न और अमृत का प्रादुर्भाव हुआ| अमृत के लिय दैत्यों और देवताओं में बड़ा संघर्ष हुआ राहू के भय से पीड़ित चन्द्रमा भाग खड़े हुए| शिवजी ने उसे अपने सिर पर धारण कर उसकी रक्षा की और तभी से वे “चंद्रशेखर” कहलाए|

देवता अमृतपान करने से मदोन्मत्त हो गए और शिवजी की माया से मोहित होकर वे अपने दल की बड़ी प्रशंसा करने लगे| उनके दर्प दलन के लिए शिवजी यक्ष का रूप धारण कर उनके सामने आये और उनसे चर्चा करने लगे| देवताओं ने जब अपने बल-पौरुष की डिंग हांकी तो शिवजी ने एक तिनका उनके आगे रखकर उनसे कहा की यदि तुम लोगों में सामर्थ्य है तो इस तिनके को काटकर दिखाओं| सभी देवताओं ने अपनी पूरी शक्ति से अपने शस्त्रों का प्रयोग किया परन्तु सफल न हो सके|

उनके आश्चर्य चकित होने पर एक आकाशवाणी उन्हें सुनाई दी की यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर महादेव हैं इन्हीं के बल से ही तुम विजयी हुए हो| यह सब सुन कर देवता सचेत हुए और उन्होंने स्तुतियों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया और अपराध के लिए क्षमा याचना की| इस पर महादेव जी देवों को शिक्षित कर अंतर्धान हो गए| भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह तीसरा अवतार था|

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4 – एकादश रूद्र अवतार – पूर्व समय में इन्द्र के अमरावती छोड़कर भाग जाने पर उनके शिवभक्त पिता कश्यप को दुख हुआ| उन्होंने काशीपुरी जाकर शिवलिंग की स्थापना कर विश्वेश्वर महादेव का विधिवत पूजन कर उन्हें अपने ताप से संतुष्ट किया| शिवजी ने प्रकट होकर कश्यप जी को देवों की दैत्याबधा हरने का आश्वासन दिया| अपने वचन के अनुसार शिवजी ने सुरभि के ग्यारह रुद्रों – कपाली, पिंगला, भीम, विरूपाक्ष, बिलोहित, शास्त्र, अजपाद, शम्भु आदि में जन्म लेकर दैत्यों का विनाश कर इन्द्र को अमरवती लौटवा दी और अन्य सभी देवताओं को सुखी किया|

5 – दुर्वासा अवतार – महर्षि अत्री ने अपनी पत्नी अनुसुइया के साथ ऋक्ष नामक एर्वत पर जाकर कठिन तप किया| उनके तप से प्रशन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी ने उन्हें एक-एक पुत्र उत्पन्न होने का वरर दिया| ब्रम्हा के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेये और शिव जी के अंश से दुर्वासा जी अनुसुइया के उदर से उत्पन्न हुए|

उन्हीं दुर्वासा जी ने एक बार अम्बरीश की परीक्षा ली थी| अम्बरीश तिथि आने पर अतिथि रूप में पधारे और स्नानार्थ गए दुर्वासा के लौटने की परीक्षा किए बिना जब परायण कर लिया तो इस पर दुर्वासा आग बबूला हो उठे| दुर्वासा के अकारण क्रोध पर राजा की रक्षा के लिए ज्यों ही सुदर्शन चक्र दुर्वासा की ओर लपका तो उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसे सुनकर दुर्वासा जी के वास्तविक रूप को जानकर सुदर्शन रुक गया और उसने भगवान शिव रूप दुर्वासा जी की स्तुति की, इधर अम्बरीश ने भी दुर्वासा जी के शिवत्व को जानकर उन्हें प्रमाण किया फिर दुर्वासा जी ने प्रेमपूर्वक अम्बरीश के घर भोजन किया|

एक समय दुर्वासा जी ने रामचन्द्रजी की परीक्षा ली थी एक बार वह रामचंद्र जी से एकान्त में बातचीत कर रहे थे की वहाँ लक्ष्मण को त्याग दिया रामचंद्र जी के इस दृढ़ नियम से दुर्वासा जी ने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया| इस प्रकार दुर्वासा जी ने श्रीकृष्ण जी के नियम की भी परीक्षा ली थी और उनकी ब्राह्मण भक्ति पर प्रसन्न होकर उन्हें भी वज्र के समान दृढ़ अंगो वाला होने का वरदान दिया था|

एक बार द्रौपदी ने नग्न स्नान करते दुर्वासा जी को अपनी साड़ी का टुकड़ा फाड़कर दिया, जिसे ओढ़कर वे जल से बाहर निकले और उन्होंने द्रौपदी को वस्त्र बढ़ने का वरदान दिया|

इस प्रकार दुर्वासा रूपधारी शिवजी ने अनेक अद्भुत चरित्र किये जिनके श्रवण से मनुष्य धन, आयु की वृद्धि तथा सभी मनोरयों की सिद्धि पाता है| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह पाँचवाँ अवतार बहुत गुस्सैल के रूप में हुआ|

शिव फोटो

6 – महेश अवतार – एक बार शिवजी ने भैरव को द्वारपाल नियुक्त किया और स्वयं पार्वती के साथ विहार करने भीतर चले गये| शिवजी को प्रसन्न करके उन्मक्त पार्वती जब द्वार से बाहर जाने लगी तो द्वारस्थ भैरव उनकी अनुपम रूपसुषमा पर मुग्ध होकर उन पर आसक्त हो गया पार्वती ने उसके मन की विकृति को देखकर क्रुद्ध होकर उसे पृथ्वी पर मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दिया| भैरव को आत्मबोध हुआ तो वह पश्चाताप करने लगा परन्तु भगवती का श्राप तो अमिट था|

फलतः भैरव श्रीघ्र ही पृथ्वी पर जाकर मनुष्य योनि में बैताल बना इधर शिवजी ने भी उसके स्नेह से पार्वती सहित लौकिक गति के अनुसार पृथ्वी पर अवतार लिया यहाँ शिवजी का नाम महेश और पार्वती का नाम शारदा हुआ|

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7 – हनुमान अवतार – विष्णु जी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया| सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों पर स्थापित कर गौतम की पुत्री अंजनी के गर्भ में प्रवेश कराया जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमान जी उत्पन्न हुए| बचपन में सूर्य को छोटा सा फल समझकर हनुमानजी उसे मुँह में ही डालने जा रहे थे की देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने उसे छोड़ दिया|

हनुमान जी ने सब विद्याओं का अध्ययन किया और वे पत्नी वियोग से व्याकुल ऋष्यमूक पर्वत पर रहने वाले सुग्रीव के मंत्री बन गए उन्होंने पत्निहरण से खिन्न और भटकते रामचंद जी की सुग्रीव से मित्रता करा दी| सीता की खोज में समुद्र को पार कर लंकापुरी गये और वहाँ उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाये| राक्षसों का वध करके, लंका को आग लगा कर और सीताजी को आश्वासन देकर रामचंद्र जी के पास लौटे और सीता की कुशलता से अवगत कराकर उन्हें सुख पहुँचाया|

पुनः शिवजी का पूजन कर रामचंद्र जी ने समुद्र पार किया और हनुमान जी की सहायता से युद्ध किया| लक्ष्मण के मुर्छित होने पर हनुमानजी ने संजीवनी बूटी लाकर उसे पुनःजीवित किया और अहिरावण को मारकर लक्ष्मण सहित राम को उसके बंधन से मुक्त किया फिर कुटुम्ब सहित रावण को मारकर हनुमान जी ने ही राम-सीता का मिलन कराया और देवताओं को सुख दिया|

इस प्रकार हनुमान अवतार धारण कर भगवान शिव ने अपने भक्त रामचंद्र जी की सहायता की| उनके दुःख और संकट दूर कर उन्हें सुखी किया|

इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह सातवाँ अवतार था हनुमान के रूप में|

8 – वृषभ अवतार – जरा-व्याधि-मृत्यु आदि से व्याकुल देवता और दैत्य जब शिवजी की शरण में आये तो उन्होंने उन दोनों का मन्दराचल पर्वत की मथानी और वासुकी को रस्मी बनाकर क्षीरसागर में मंथन करने का आदेश दिया| शिवजी की सहायता से देवता और दैत्य अपने कार्यों में सफल हुए| समुद्र मंथन से चौदह रत्न-लक्ष्मी, धन्वन्तरी, चन्द्र पारिजात, कल्पवृक्ष, एरावत, शार्ग, शंख, कामधेनु, अमृत तथा विष निकले|

अमृत के लिए देवों और दैत्यों में प्रबल संघर्ष हुआ| दैत्यों ने बलपूर्वक देवों से अमृत छीनकर अपने अधिकार में कर लिया| पराजित देवता शिवजी की शरण में आये और शिवजी की आज्ञा से विष्णु ने स्त्री (मोहनी) का वेष धारण कर दैत्यों से अमृत छिनकर देवताओं की पिलाया| देवताओं ने अमृत से वंचित होने पर बड़ा भीषण उत्पात मचाया|

विष्णु जी ने देवताओं की रक्षा करते हुए दैत्यों का विनाश किया| कुछ दैत्य आत्मरक्षा के लिए पाताल में घुस गये| उनका पीछा करते हुए विष्णु जी जब पाताल लोक में पहुँचे तो वहाँ उन्हें दैत्यों द्वारा स्थापित बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियाँ दिखाई पड़ी| विष्णु जी जब उनके साथ रमण करके बहुत युद्ध-दुमर्द पुत्र उत्पन्न किये जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव लिया| शरणागत मुनियों को साथ लेकर ब्रह्माजी शिवजी के पास गए और रक्षार्थ प्रार्थना करने लगे|

शिवजी वृषभ रूप धारण कर पाताल के उस खण्ड में प्रविष्ट हुए और उन्होंने वहाँ अपने गर्जन से ही आतंक उत्पन्न कर दिया| विष्णु पुत्रों ने वृषभ द्वारा आकान्त होने पर शिवजी पर भीषण आक्रमण किया| इस पर वृषभ वेषधारी शिवजी ने कितने ही विष्णु पुत्रों को मुर्छित और कितनी को प्राण रहित कर दिया| अपने पुत्रों का विनाश देखकर विष्णु वृषभ पर अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे, परन्तु वे शस्त्र सर्वथा निरर्थक सिद्ध हुए|

शिवजी ने अपनी माया से विमोहित तथा अपने को न पहचानने वाले विष्णु को अपने खुरों और सींग से विदीर्ण कर दिया| इसके पश्चात् वृषभ रूपधारी पार्वती-पति को पहचान कर विष्णु जी ने उनकी स्तुति की और कहा- ‘करुणा सागर प्रभो! मैं मुर्ख हूँ जो मैंने आपकी माया से मोहित होकर आपके साथ युद्ध किया है भला कभी सेवक स्वामी से युद्ध करता है’|

विष्णु जी के इन वचनों को सुनकर शिवजी ने उनकी अज्ञानता के लिए उन्हें डांटा जब विष्णु जी लज्जित और अपमानित होकर वहाँ से जाने लगे तो शिवजी ने उन्हें रोककर उनका चक्र वहाँ रखवा लिया और फिर कृपा करके उन्हें दूसरा चक्र प्रदान किया| इसके पश्चात जब विष्णु जी ने यह कहा की इन रामिणी से जो चाहे रमण करे तो शिवजी ने इसका निषेध करके उन सब पर शासन किया| इस प्रकार विष्णु का दर्पदलन करके शिव जी अपने लोक को लौट आये|

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9 – पिप्लाद अवतार – एक समय इन्द्रियादी देवताओं को वृत्रासुर ने जब पराजित कर दिया तो ब्रम्हाजी के परामर्श से सभी देवता दधीची के आश्रम में उनकी सेवा में उपस्थित हुए| दधीचि ने अपनी सुवर्चा को घर के भीतर भेजकर देवताओं से उनके आगमन का कारण पूछा तो स्वार्थी देवों ने दधीची से उनकी अस्थियों की मांग की| दधीची ने शिवजी का ध्यान कर अपना शरीर त्याग दिया| इन्द्र ने शीघ्र ही कामधेनु से उसकी अस्थियाँ निकलवा लीं और त्वष्टा के निरिक्षण में विश्वकर्मा को सुदृढ़ वज्यमय अस्त्र बनाने का आदेश दिया| उस अस्त्र से वृत्रासुर पर प्रहार करके इन्द्र ने विजय प्राप्त की|

इधर दधीचि की पतिवता पत्नी सुवार्चा जब बहार आई तो वह पति को न पाकर और सारा वृत्त जानकर अग्नि में जलने को तैयार हो गई| इस बीच आकाशवाणी हुई – मुनीश्वर का तेज तुममे विद्यमान है अतः शास्त्र की आज्ञा है गर्भवती आत्मदाह न करे – को गौरव देते हुए तुम्हें चिंताग्नी में जलना उचित नहीं है| सुवर्चा ने दुखी होकर एक और देवों को पशु हो जाने का श्राप दिया और दूसरी ओर पत्थर से अपना गर्म फोड़ डाला|

उसके गर्भ से दिव्य शरीर वाला एवं परम कान्तिमान बालक उत्पन्न हुआ, जिसे साक्षात् शिव समझ कर सुवर्चा ने प्रमाण किया और उस स्वरुप को अपने ह्रदय में बसा लिया| सुवर्चा ने बालक रूप शंकर से प्रार्थना की की वे पीपल के मूल में निवास करें और उसे पतिलोक में जाने की अनुमति दें| यह कहकर वह देवी समाधिस्थ होकर पति के पास चली गई| इधर शंकर जी का अवतार हुआ जानकर सभी ब्रम्हादि देवताओं ने आकर उत्सव मनाया| ब्रह्माजी ने उसका नाम पिप्पलाद रखा और उनकी आराधना कर अपने लोक को चले गए|

एक दिन पिप्पलाद ने राजा अरण्य की रूपवती कन्या पर मुग्ध हो कन्या के पिता से कन्या की मांग की और इंकार करने पर कुल सहित नष्ट करने की धमकी भी दी| राजा ने भयभीत होकर अपनी कन्या पिप्पलाद को दे दी| पदमा ने पति के रूप यौवन की उपेक्षा करके तन मन से उसकी सेवा की| युवती पदमा से रमण करके वृद्ध मुनि पिप्पलाद युवा हो गए और उन्होंने पदमा से अपने ही समान दस पुत्र उत्पन्न लिए| पिप्पलाद मुनि के रूप में अनेक लीलाएँ करके शिवजी अपने स्वरुप में लौट लाए|

10 – वैश्यनाथ अवतार – पूर्व समय में नंदीग्राम में सुनन्दा नाम की रूपवती वेश्या रहती थी| व्यवस्था से रूपाजीवा होते हुए भी वह शिवभक्त थी| वह रुद्राक्ष और विभूति धारण कर शिवजी के नाम जप में तन्मय रहा करती थी| उसके भाव की परीक्षा के लिए शंकर जी एक दिन वैश्य का रूप घारण कर उसके घर गए|

उनके पास एक ऐसा सुन्दर कंकण था कि जिसे पाने को वह वेश्या आतुर हो उठी और वेश्या धर्मं के अनुसार सुनन्दा ने कंकण के मूल्य के रूप में तीन दिन और तीन रात उस वैश्य की पत्नी बनकर उसके साथ रमण करने की योजना रखी, जिसे वैश्य रूपधारी शिवजी ने स्वीकार कर किया| कंकण लेकर सुनन्दा ने अतिथि वैश्य को सुन्दर और सुखद सेज पर सुला दिया| इतने में घर में आग लगने की सुचना दासी ने दी| उस अचानक लगी आग में वह कंकण भी जल गया|

जिससे उदास होकर उस वैश्या के जल जाने पर प्रतिज्ञा पूर्ण न कर पाने से आकुल-व्याकुल सुनन्दा ने प्राण विसर्जन करने का निश्चय किया तो विश्वात्मा शिव ने प्रकट होकर उसे मरने से रोक दिया तथा अपने दिव्य रूप के दर्शनों से उसे कृतकृत्य किया| शिवजी ने उस वेश्या की भक्ति और निष्ठा की प्रशंसा करते हुए उसे वर मांगने को कहा| इस पर सुनन्दा ने उनके चरणों में नित्य भक्ति और स्वरुप के नित्य दर्शन का वरदान माँगा जिसे शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे परमपद प्रदान किया|

11 – द्विजेश्वर अवतार – एक बार जब भद्रायु अपनी पत्नी सिमन्त्रिनी के साथ वन विहार को गया तो भगवान शंकर भी पार्वती को लेकर द्विज दंपत्ति से रूप में उस वन में विहार के लिए पहुँच गए| वहाँ वन में अचानक प्रकट हुए मृगराज से भयभीत होकर शिवजी रक्षा के लिए दौड़कर  राजा की शरण में आये| राजा ने अपने अमोघ अस्त्रों का प्रयोग किया परन्तु उन्हें निरर्थक करके सिंह ब्राह्मण की स्त्री को अपने मुँह में दबा कर भाग गया|

इस पर ब्राह्मण ने राजा की बहुत भर्त्सना की, की वह राजा होकर शरणागत ब्राह्मण की रक्षा नहीं कर सका, उसका जीवन व्यर्थ है| ब्राह्मण अपनी पत्नी के वियोग में दुखी होकर जल मरने को उद्यत हो गया| राजा ने जब बहुत अनुनय विनय की तो ब्राह्मण ने इस शर्त पर प्राण रखना स्वीकार किया की राजा उसे इसकी पत्नी के बदले अपनी प्रधान रानी दान में दे| राजा ने शरणागत की रक्षा न कर पाने के पाप से मुक्त होने के लिए अपनी पत्नी ब्राह्मण को दान में देने का निश्चय कर लिया|

दान का संकल्प करके ज्योंहीं भद्रायु चिंताग्नी में जलने को उद्यत हुआ शिवजी ने प्रकट होकर उसे अपने स्वरुप का दर्शन कराया और उसे बताया की उसकी पत्नी वस्तुतः पार्वती है और सिंह भायानिर्मित है| यह सब उसके धर्मव्रत की परीक्षा के लिए ही किया गया था| भद्रायु के सत्यनिष्ठ सिद्ध होने पर शिवजी उसे अपनी अचल भक्ति का मुँह माँगा वर देकर अंतर्ध्यान हो गए| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह ग्यारहवाँ अवतार था|

12 – यतिनाथ अवतार – अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहकआहुका नामक भील दम्पति रहते थे| एक समय आहार की खोज में आहुक बहुत दूर निकल गया| थका हारा सायंकाल को जब वह घर लौटा तो भगवान शंकर यतीश के वेश में उसके घर पधारे| उसने यतीश का सविधि पूजन किया| यातिनाथ ने उसके घर पर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की| घर में स्थान की न्यूनता के कारण भील संकोच में पड़ गया|

आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा| आहुक ने सोच-विचार कर यति को घर में रात्रि बिताने की अनुमति दे दी| उसने आग्रह पूर्वक पत्नी को घर के भीतर रहने को कहा और स्वयं धनुषबाण हाथ में लेकर बाहर चला गया|

प्रातःकाल आहुका और यति ने देखा की आहुक वन्य पशुओं का भक्ष्य बन गया है| इस पर यति बहुत दुख प्रकट करने लगा, परन्तु आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा की आप शोक न करें| मेरा क्या है, में तो चिंताग्नी में जलकर पति के पास पहुँच जाऊँगी| अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं|

यति को यह कहकर जब आहुका चिंताग्नी में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर वरदान दिया| शिवजी के वरदान से अगले जन्म में आहुक निषधराज नल और आहुका दमयन्ती बनी| शिवजी ने हंस रूप धारण कर जन्म में उन दोनों का मिलन कराया|

13 – कृष्णदर्शन अवतार – इक्ष्वाकुवंशिक श्राधदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ| विद्या-अध्ययन को गुरुकुल में गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया और नभग के भाग का किसी को भी ध्यान ही न रहा|

नभग के लौटने पर और भाइयों से अपना भाग माँगने पर भाइयों ने कहा उनका भाग तो उसके पिता के पास है| इस पर जब वह अपने पिता के पास गया तो श्राधदेव ने उसके भाइयों के कथन को मिथ्या बताया और उसे कहा की वह यज्ञ परायण ब्राम्हणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को संपन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे – यही एक मात्र उपाय है जिससे वह समृद्ध हो सकता है|

नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया| अगरिस ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए| उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले की यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है| नभग के विवाद करने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा| नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा वह पुरुष शंकर भगवान है| यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है| यदि वे कृपा करें तो तुम पा सकते हो अखिलेश्वर प्रभुशंकर आशुतोष हैं|

तुम वहाँ जाकर उनकी स्तुति करो अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करो तो वे तुम्हें कृतकृत्य कर देंगे| पिता के वचनों को गौरव देते हुए नभग ने दंडवत प्रमाण करके शिवजी की अनेक प्रकार से स्तुति कर स्तुति कर प्रार्थना की तो शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे ब्रह्मज्ञान प्रदान किया, जिससे उसकी भी सदगति हो गई|

14 – अधुतेश्वर अवतार – एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इन्द्र शंकर जी के दर्शनों को कैलाश पर आए तो उसकी परीक्षा के लिए शिवजी ने अद्भुत आकार वाले अवधूत का रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया| इन्द्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो वह मौन ही रहा| इस पर क्रुद्ध होकर इन्द्र ने ज्योंही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोड़ना चाहा त्योंही उसका हाथ स्तंभित हो गया|

यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिस पर प्रसन्न होकर शिवजी ने इन्द्र को क्षमा कर दिया| इन्द्र को जीवन दिलाने के कारण ही बृहस्पति को जीव संज्ञा पड़ी| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह चौदवां अवतार हुआ|

15 – भिझुवर्य अवतार – विदर्भ नरेश सत्यरत को शत्रुओं ने मार डाला| उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए| समय पर उनको एक सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ| रानी जल पीने सरोवर पर गई तो वहाँ से घड़ियाल ने अपना आहार बना लिया| सघोजात बालक भूख प्यास से पीड़ित हो रोने-चिल्लाने लगी| इतने में शिवजी की माया से प्रेरित एक भिखारिन वहाँ आ पहुंची और एकाकी पड़े अबोध बालक पर दयाद्र हो उठी|

उस बालक के सम्बन्ध में किससे पूछे, इसी उहापोह में भटक ही रही थी कि शिवजी ने भिक्षुक रूप धारण कर उसे बालक का परिचय कराया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया| भिक्षुक वेषधारी शिवजी ने बताया की यह बालक शिव भक्त वदर्भ नरेश सत्यरथ का ही पुत्र है| इसका पिता युद्ध में शाल्व शत्रुओं द्वारा मार डाला गया है इसका कारण शिवार्चन को अधूरा छोड़कर उसका युद्ध तत्पर होना तथा शिव-पूजा को संपन्न किये बिना ही रात्रि में भोजन कर लेना है| इस बालक की माता घड़ियाल का भोजन बन गई है इसका कारण इसका पूर्व जन्म में अपनी सौत की छल से हत्या करना है|

शिव पूजा न करने से ही यह दरिद्रता को प्राप्त हुआ है| यह सब कहकर भिक्षुक वेषधारी शिवजी ने कृपा करके भिक्षक को अपने दिव्य रूप के दर्शन कराए| शिवजी के दर्शनों से कृतकृत्य भिक्षुओं ने उनको आज्ञा से नवजात बालक का पालन पोषण किया| बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपना नृपत्व प्राप्त किया| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह पन्द्रहवाँ अवतार माना गया|

16 – सुरेश्वर अवतार – व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था| वह सदा दूध की इच्छा से आकुल-व्याकुल तथा अभाव से पीड़ित रहता थी| उसकी माँ उसे अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए शंकर जी को शरण ग्रहण करने की सलाह दी| इस पर उपमन्यु वन में जाकर ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करने लगा| शिवजी न सुरेश्वर (इन्द्र) रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करके उसे अपने से ही वर मांगने को कहने लगा|

इस पर उपमन्यु अत्यंत क्रुद्ध हो उठा और वह इन्द्र को मारने को तत्पर हो गया| उपमन्यु की अपना में दृढ़ भक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने स्वरुप का दर्शन कराया तथा क्षीर सागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया| प्रार्थना पर कृपालु शिवजी उसे अपनी परम भक्ति और अजर अमर पद प्रदान किया|

17 – ब्रह्मचारी अवतार – दक्ष के यज्ञ में प्राण त्याग करने के उपरांत जब सती हिमालय के घर जन्म लिया और शिवजी को पति रूप में पाने के लिए तप का आश्रय लिया तो शिवजी ही उसकी परीक्षा के लिए सप्तऋषियों को भेजा और सप्तऋषियों ने अपनी कार्यवाही से शिवजी को अवगत कराया शिवजी ब्रह्मचारी का वेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के लिए वहाँ गए| पार्वती ने तेजस्वी ब्रह्मचारी को देखकर उसकी पूजा की|

इसके उपरांत ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और शिवजी की निंदा प्रारम्भ कर दी| ब्रह्मचारी ने शिव को ‘कापालिक’ ‘आग्रही’ शमशानवासी आदि बताकर उसको बहुत प्रकार से अवज्ञा की|

इस पर रुष्ट होकर पार्वती ने शिव निंदक उस ब्रह्मचारी की पूजा करने से अपने कृत्य को ही अनुचित बताया और अपनी सखी विजया को उस ब्रह्मचारी को वहाँ से निकलने को कहा ज्यों ही पार्वती ने ब्रह्मचारी के पति उग्रता दिखाई त्योंही ब्रह्मचारी वेषधारी शिव अपना रूप पार्वती को दिखाया और उसकी प्रार्थना पर उसके पिता से विधिवत उसे मांगकर उसके साथ विवाह किया| पार्वती से विवाह कर शिवजी ने कैलाश पर आकर उसके साथ चिर विहार किया| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह सत्रहवाँ अवतार था|

18 – सुनटनर्तक अवतार – तपोरता पार्वती को जब शिवजी दर्शन दिए और उसके पिता से विधिवत उसे मांगने की उसकी प्रार्थना स्वीकार की तो भोलेनाथ सुन्दर नटनर्तक का वेश धारण किया| बाएँ हाथ में लिंग व दायें हाथ में डमरू लेकर लाल वस्त्र पहने नटवर शिवजी हिमाचल के घर पहुँच कर नित्य करने लगे| नटराज शिवजी इतना सुन्दर और मनोहर नत्य किया की उपस्थित लोग आनंद विभोर हो उठे| मैना स्वयं रत्नों का थल भरकर देने के लिए उपस्थित हुई परन्तु शिवजी भिक्षा में पार्वती को माँगा| इस पर मैना क्रुद्ध हो गई| इतने में हिमाचल वहाँ आ गए और वे भी नर्तक की मांग पर क्षुब्ध हो उठे|

हिमाचल ने नर्तक को घर से बाहर निकलने का अपने भृत्यों को आदेश दिया परन्तु प्रयत्न करने पर भी कोई उन्हें घर से बाहर न निकाल सका| कुछ देर में नटवर वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए| उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय कर लिया| इस प्रकार शिवजी में उन दोनों की अद्भुत निष्ठा हो गई| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह अठारहवाँ अवतार था|

19 – साधु अवतार – हिमाचल ने जब अपनी पुत्री पार्वती शिवजी को देने का निश्चय कर लिया तो देवताओं को ईर्ष्यावश यह चिंता होने लगी की इससे तो हिमाचल शिवजी की एकांग शक्ति से शिव के निर्वाणपद का अधिकारी हो जायेगा| इसके साथ ही वह अनंत रत्नों का स्वामी बनकर पृथ्वी की ‘रतनगर्भा’ संज्ञा को निरर्थक कर देगा| इस पर अपने गुरु बृहस्पति से मंत्रणा कर इन्द्रादि देवता/ब्रह्माजी के पास गए और उनसे शिवजी की निन्दा करके हिमालय को अपने निश्चय से वितरत करने का अनुरोध किया|

ब्रह्मा जी ने शिवनिंदा जैसा घोर पाप करने में अपनी असमर्थता प्रकट की| देवताओं के गिडगिडाने पर ब्रह्मा जी ने कहा की मैं, विष्णु अथवा कोई अन्य महानुभाव शिवजी की निंदा करने का दुस्साहस नहीं कर सकता| इसके लिए तुम शिवजी के पास जाओ और उनसे ही सैलराज के सम्मुख स्वयं अपनी निंदा करने की प्रार्थना करो| देवताओं के अनुरोध को भोलेनाथ ने स्वीकार कर लिया और वे साधु का वेष बना कर हिमाचल के घर गए|

हिमाचल ने तेजस्वी साधु का स्वागत किया और साधु वेषधारी शिवजी अपने को सिद्ध ज्योतिषी बताकर कहा की तुम अपनी पुत्री पार्वती का शंकर जी से विवाह करने जा रहे हो परन्तु शिवजी तो ‘विरूप’ ‘निर्गुण’ श्मशानवासी ‘विकट’ ‘सर्पधारी’ और ‘दिगंबर’ है| उनके साथ बेचारी पार्वती किस प्रकार सुखी रहेगी? शिवजी यह कहकर चल पड़े परन्तु पर्वतराज यह सब सुनकर अपनी आस्था से विचलित नहीं हुआ|

इस तरह भगवान शिव के 21 अवतारों में से यह उन्नीसवाँ अवतार माना गया|

20 – विशु अश्वत्थामा अवतार – बृहस्पति के पौत्र और भारद्वाज के अयोनिज पुत्र द्रोणाचार्य अपने तप से शिवजी को प्रसन्न करके उनसे तेजस्वी पुत्र प्राप्त करने का वरदान पाया और यथा समय अश्वत्थामा का जन्म हुआ| अश्वत्थामा के बल के कारण कौरव शक्तिशाली हो गए| अश्वत्थामा कृष्ण, अर्जुन आदि को देखते-देखते पांडवों के पुत्रों को मर डाला| अर्जुन पर जब उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो अर्जुन ने शैवराज श्रीकृष्ण के परामर्श पर शैवराज का प्रयोग किया, जिससे दुर्निवार ब्रह्मास्त्र शांत हो गया|

अश्वत्थामा रूपधारी शिवजी के अस्त्र ने उत्तरा के गर्भस्य शिशु को निर्जीव कर दिया भगवान शिवजी की कृपा से कृष्णजी ने उस बालक को पुनर्जीवित किया| इनके उपरान्त शिव भक्त श्रीकृष्ण ने सभी पांडवों को अश्वत्थामा के चरणों में प्रणाम कराया और उनसे अश्वत्थामा की महिमा गान कराई|

21 – किरात अवतार – कौरवों ने युद्ध में छल-कपट से पांडवों को हराकर उनका राज्य हड़प लिया और पांडवों को वन-वन भटकना पड़ा| वन में भी दुर्योधन ने दुर्वासा जी आदि को भेजकर पांडवों को व्यथित और नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी| समय-समय पर कृष्णजी ने पांडवों की रक्षा की और उन्हें भगवान शिवजी को प्रसन्न करने का परामर्श दिया| इसी प्रकार वेदव्यास जी ने भी पांडवों को बताया की शिवभक्ति से ही उनका कल्याण हो सकता है|

इन दोनों महात्माओं के परामर्श पर अर्जुन भगवान शंकर को तप द्वारा प्रसन्न करने के लिए एकांत पर्वत पर चले गए| इन्द्र ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा तो अर्जुन ने सभी कौरवों पर विजयी होने का वर माँगा| इन्द्र ने शिवावातर अश्वत्थामा पर विजयी होने का वरदान देने में अपनी असमर्थता प्रकट की और इसके लिये अर्जुन को भगवान शिव को प्रसन्न करने की सलाह दी|

अर्जुन ने घोर तप प्रारम्भ कर दिया| इधर दुर्योधन ने पता लगाते ही मुड़ दैत्य को अर्जुन के तप में विघ्न डालने के लिए भेजा| उस दैत्य ने शूकर रूप धारण कर अर्जुन पर वार किया| अर्जुन ने शिवजी का स्मरण कर शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया| इधर भक्तवत्सल शिवजी ने भी भक्त की रक्षा के लिए शूकर पर शरसन्धान किया| शिवजी इस समय किरात वेष धारण किये हुए थे और उन्हें न पहचान पाने के कारण अर्जुन ने शूकर को अपने द्वारा मृत बताया और अर्जुन की परीक्षा के लिए किरात वेषधारी शिवजी ने भी शूकर पर अपना अधिकार बतलाया|

इसी बात पर दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया| अर्जुन के सारे शस्त्र, सारी युद्धकला निरर्थक सिद्ध हुई| निराश अर्जुन युद्ध छोड़कर शिवाराधना में लग गया| परन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा जब की उसके द्वारा शिवमूर्ति को पहचान गई माला किरात के कंठ को सुशोभित करने लगी| अर्जुन ज्यों ही किरात के निकट आया तो भगवान शंकर ने उसे अपने दिव्य रूप के दर्शन कराये और उसे कौरवों पर विजय का वरदान देकर कृतकृत्य किया| अर्जुन किरात वेषधारी भगवान शंकर की स्तुति वंदना करके तथा उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करके अपने घर लौट आया| इस तरह भगवान शिव के 21 अवतार माना गया है|

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निष्कर्ष

मुझे उम्मीद है इस पूरे लेख को पढ़ने के बाद आप यह जान गये होंगे की भगवान शिव के 21 अवतार कौन-कौन से हैं भगवान शिव के अवतार पर आपने विस्तृत जानकारी देखा| भगवान शिव के 28 अवतार में से मुख्य रूप से भगवान शिव के 11 रूद्र अवतार के नाम का भी जिक्र किया गया है|    

भगवान शिव की महिमा का वर्णन सिर्फ नर ही नहीं देव-दानव-किन्नर-राक्षस हर जीव के रखवाले – देव के देव महादेव “शिव” है|

इसके अलावा पार्वती के कितने अवतार थे इसको भी हमने देखा| कुछ तस्वीर भी आपने देखा भगवान शिव फोटो के रूप में|

भगवान शिव (महाकाल अवतार) के बारें में विस्तृत जानकारी के लिए आप यहाँ click करके उनके ज्ञान-विज्ञान और पूरे ब्रह्मांड को समझ सकते है|

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